बड़ी मुश्किल से शांत करती हूँ
सतह के पानी को ....
ऊपर से देख कर अंदाजा नहीं लगा सकते
कितने उलझे हुए हरे-नीले शैवाल है ..
कितने भंवर ..कितने तूफान हैं भीतर
मेरी इस झील के किनारे
बहुत सी दरारें हैं
कीच सी जमी हैं यहाँ यादें..
पाँव धंस जाते हैं घुटनों तक.
एक हंस रहता है वहीं..
सुर्ख चोंच वाला
गाहे बगाहे सर्र से तैर कर
पार कर लेता है सतह का सीना
देर तक लकीर का निशान रहता है वहाँ
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यूँ कंकड़ न मारा करो इस शांत पानी में
जहाँ से पत्थर डुबकी लगाता है न
वही से बनती हैं ..
गोलाइयों की कुछ फ्रिन्जेज़
जब ये किनारों तक पहुँच जाती हैं न
तो वहाँ जमी यादें फिर गीली हो जाती हैं
सूखने का वक्त ही नहीं देते इन्हें .