"एक मुकम्मल तस्वीर बनाने की चाहत में ..... झरते हैं कुछ रंग ....घुलती हैं कुछ भावनाएं ..सिमट जाते हैं कुछ स्वप्न ...यही है ..मन के कैनवस पर तूलिका के शब्द-रंग "
शुक्रवार, 21 सितंबर 2012
सपनों की फ़सल
चलो !
धरती को अपने सपनों से भर दें .
कुछ सपनों की कश्तियाँ बनाकर
पानी पर ऐसे तैरायें
कि सुलग उठे नदी का सीना
और गर्म भाप बनकर
छा जाएँ सब सपने
आसमान पर बादल बनकर ...
कुछ सपनों को दबा दें
पहाड़ों की बर्फ़ में
कि धूप की आंच से जो पिघलें
तो बह चलें पानियों सा
और बुझा दें प्यास
हरेक मन की ...
कुछ सपने ऐसे भी हों
जो मिट्टी में दब कर भी अँखुआएं
बेल बनकर चढ़ जाएँ ऊंचाइयों पर
या वृक्ष बन इठलायें
शाखों की बाहें खोल
हवा से मिल
फिर बीज हो जाएँ ...
चलो !
इन बीजों को बिखेर दें,
एक बार फिर इंतज़ार करें
इस बंजर धरती पर
सपनों की फ़सल का !!
शनिवार, 15 सितंबर 2012
बराबर हिस्सा
घुप्प अंधेरी रात के खेत में
बन्द आँखों से कल जो हमने
सितारों की फ़सल बोई थी
सुबह सूरज आकर रौंद गया है ...
उन अँखुआए सितारों से कहना है
पड़े रहें सर झुकाए चुपचाप
कुछ घण्टों में ढल जाए जब
रौशनी का सामराज
तो खोल लें बाँहें अपनी
मिचमिची आँखों की टिमटिम से
चंद्रकिरणों की अंगुलियाँ पकड़
चमक जाएँ आसमान के
काले कैनवस पर ...
कहना है उस अभिमानी आकाश से
कि उसके विस्तृत दामन पर
जो गिनकर वक़्त बांटा है घड़ी ने
सूरज के बराबर ही हिस्सा है
उसमें सितारों का भी ............!
मंगलवार, 11 सितंबर 2012
उत्परिवर्तन
उसके पांवों के नीचे
सख्त रास्ता नहीं था
उसकी जगह ले चुकी थी
एक तीव्र प्रवाहमयी नदी ...
धारा के विपरीत तैरने
और शिखर तक पहुँचने की जिद में
बाजुओं ने पाल ली थीं मछलियाँ
ये उसके स्व का विस्तार था
उत्परिवर्तन था उसकी काया का ...
पांवों में बंधे चप्पुओं को
मालूम थी ये बात
कि कोई नाविक ..कोई बेड़ा
नहीं आएगा आस पास
जो हर सके स्पर्श मात्र से
थोड़ा जीवन संघर्ष, उसके हिस्से का ...
फेफड़े पवन चक्की से चलते
साँसों की रफ़्तार से जलाते रहे
देह का कोयला ...
शिखर विस्फारित नेत्रों से देख रहा था
उस अंगार को ....
मंगलवार, 4 सितंबर 2012
पक्के टाँके
हर बार
एक खोल ओढ़े
एक आवरण लपेटे
करीब आते हो
इस बात से अनभिज्ञ
अनजान
कि ओढ़े हुए मुखौटों के
टाँके कच्चे होते हैं ..
हर बार
उन टांकों को
उधेड़ कर..खोलकर
भीतर झांकती हूँ
सुन्दर खोल में लिपटी
कुरूपता दिख ही जाती है ..
हर बार
इसी वजह से
तुम्हारा अंतस
लौटाया है मैंने
जस का तस ..
इस बार आना
तो आवरण नहीं
अपने अंतस के
भाव लाना ...
टांक दूंगी
भरोसे की
कुछ रंगीन फुन्दनियाँ
निःस्वार्थ प्रेम के
पक्के धागों से ...
तुम्हारे शको-शुबहे
नाराजगियां सारी
काट छांट कर
फेंक दूंगी
कतरनों के ढेर में ...
खुले ज़ख्मों पर
लगा दूंगी कुछ बटन
दर्द की उधड़ती सीवन
सिल दूंगी फिर से ...
“ प्रेम में दर्जी होने के हुनर का
असर है ये “.
एक खोल ओढ़े
एक आवरण लपेटे
करीब आते हो
इस बात से अनभिज्ञ
अनजान
कि ओढ़े हुए मुखौटों के
टाँके कच्चे होते हैं ..
हर बार
उन टांकों को
उधेड़ कर..खोलकर
भीतर झांकती हूँ
सुन्दर खोल में लिपटी
कुरूपता दिख ही जाती है ..
हर बार
इसी वजह से
तुम्हारा अंतस
लौटाया है मैंने
जस का तस ..
इस बार आना
तो आवरण नहीं
अपने अंतस के
भाव लाना ...
टांक दूंगी
भरोसे की
कुछ रंगीन फुन्दनियाँ
निःस्वार्थ प्रेम के
पक्के धागों से ...
तुम्हारे शको-शुबहे
नाराजगियां सारी
काट छांट कर
फेंक दूंगी
कतरनों के ढेर में ...
खुले ज़ख्मों पर
लगा दूंगी कुछ बटन
दर्द की उधड़ती सीवन
सिल दूंगी फिर से ...
“ प्रेम में दर्जी होने के हुनर का
असर है ये “.
रविवार, 2 सितंबर 2012
दर्द की लकीरें

ये सड़क नहीं
धरती के सीने पर
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.
दिन रात चलती हैं
पर न थकती हैं
न मंज़िल तक पहुँचती
है
कितने ही रहबर
...रहनुमा
रौंद कर सीना इसका
निकल जाते हैं
अपनी मंज़िल को
उन्हें पहुंचाती है
उनके मुक़ाम तक...
कुछ और हमसफ़र
साथ ले चल देती है
अनंत यात्रा को.
कितने ही शहरों-गाँवों
कस्बों-कूचों का
हाथ थाम
जोड़ देती है
कुछ टूटे सिरे,
कुछ भटकी राहें,
कुछ खोये रिश्ते
....
तुम्हारे शहर की
सरहद पर जाकर
कैसे बदल जाती है
यकायक ?
फ़ोर लेन और सिक्स
लेन के
चमचमाते रूप से
चौंधियाती
क्यूँ बदल लेती है
अपना स्वभाव ...
शायद तुम्हारे शहर
को ही
भरमा लेने की आदत है
!!
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
कुछ चित्र ये भी
-
रोपा था हथेली पर एक बीज... सोचा था ...हाथ की लकीरों में उगेगी एक लकीर प्यार की बढ़ते बढ़ते पहुँच जाएगी तुम्हारे हाथों तक .. एक साल ऐसा...
-
कितने ही ख्वाबों को यादों की जिल्द लगा पलकों की कोरों पर करीने से सहेजा है ... जैसे अलमारी में किताबें सजाता है कोई . कितने ही ख्व...
-
वो उदासियों के तमाम रास्ते तय कर खुशियों की दहलीज़ पर चुप्पियाँ लिए बैठा था इस बात से अनभिज्ञ कि खिलखिलाहटों की कुंजियाँ उसके शब्द थे ...
-
कुछ यादें कुछ सपने अपने थाती हैं जीवन की बक्से में कुछ तस्वीरें और पाती है प्रियतम की . आँखों भर आकाश खुल...
-
लड़की कस के पकड़ लेती उँगलियों में अपना ब्रश सारे गहरे रंग समेट .. ब्रश की नोक पर लगा लेत...
-
उसके पांवों के नीचे सख्त रास्ता नहीं था उसकी जगह ले चुकी थी एक तीव्र प्रवाहमयी नदी ... धारा के विपरीत तैरने और शिखर तक पहुँच...
-
स्त्रियाँ कब तय करती हैं रचनाओं का अनंत विस्तार? कब उतरती हैं .. काव्य की अतल गहराई में? और कब सिरजती हैं साहित्य के दुर्लभ पृष्ठ ? ज...
-
कुछ आधी अधूरी बातें याद के बटुए की चोर जेब में छिपा लीं .. छोटे छोटे रुक्के जो यहाँ वहाँ पड़े थे आँचल की गिरह से बाँध लिए .. ...
-
एक मील का पत्थर है कहता कुछ नहीं दिखाता रहता है सिर्फ़ दूरियाँ... एक पत्थर है संगेमरमर ताजमहल में जड़ा महान प्रेम के बेजान सुबूत सा ...
-
आज फिर मेरी खामोशियाँ.. तुम्हें छूकर खामोश ही लौट आयी हैं. कितने सवाल कर चुकी हूँ ... कितने उलाहने दे चुकी हूँ ......