धूप का एक छोटा सा कतरा ...ज़मीन पर चुपचाप खड़ा .....शायद देखने आया था कि शीत ने कितने ज़र्द पत्ते अपनी शाखों से जुदा किये हैं ....गुनगुनी सेंक की थोड़ी आस लिए पास चली आई मैं ...पीठ पर जैसे ही गर्माहट ने असर दिखाया तो कन्धों का दर्द महसूस होने लगा ...उसी से निजात पाने के लिए गर्दन ऊपर की थी मैंने ...अनमना.. उदास मन वहीँ अटक गया .....अरे! ये तो चंपा का वही पेड़ है ...जिसके फूलों की खुशबू मेरी यादों में बसती है ....उस एक पल की अनुभूति बाँटना चाहती हूँ ..............
चंपा ....मेरी सखी!
तुम्हें देख आकुल हूँ ...
विह्वल हूँ....
दुःसह शीत की पीड़ा ने
खींच लिया है हर आवरण
तुम्हारे सौंदर्य का..
छीन ली है तुमसे..
तुम्हारी पहचान.
सूख कर झर गये हैं..
हरियाए तुम्हारे पत्ते.
तुम्हारी सुगंध से महकता
विशिष्ट होने का परिचय देता
वो श्वेत पुष्प भी
तुमने आज नहीं पहना.
पत्रविहीन... पुष्पविहीन..
तुम्हारा तन ..तुम्हारी शाखें
और अपने अवशेषों के ढेर पर खड़ी तुम.....
जोगनसी ...बिरहन सी
खड़ी हो हाथ उठाए..
मानो प्रीत का हर ओस कन
समेट लोगी अंचल मे.
तुम्हारी शाखों मे ..
मेरे हाथों सी उंगलियाँ हैं
जिसकी पोरें अँखुआ गयी हैं
शीत के इस विरह के बाद
जब ऋतुराज आएगा.....
ये अंकुर फूटेंगे ..
भर उठोगी तुम हरीतिमा से.
तुम्हारी उँगलियों से ..
फिर झरेंगे फूल...
फिर बिखरेगी सुगंध ||