मन की तकली पर
अनवरत काता है ..
टीसती रही उंगलियां
लहूलुहान होते रहे पोरें
कताई भी होती रही
तीव्र से तीव्रतर ..
देखो न ..
उँगलियों से रिसे रक्त ने
अनायास ही
पूनियों को रंग दिया है
तुम्हारे ही रंग में
प्रीत ने जुलाहे का हुनर
तो सिखा ही दिया है
मैंने भी दिल के करघे पर
चढा दी हैं
काते हुए सूत की पूनियां
धडकन की लय पर
बुनूँगी ताना बाना
धक धक.. धक धक
इस लय ताल में
आती जाती हर सांस में
सिमरूंगी तुम्हारा भी नाम
जिसके असर से
मेरी बुनी काली कमरिया भी
हो उठेगी आरक्त ..
तुम सी .
सिमरूंगी तुम्हारा भी नाम
जिसके असर से
मेरी बुनी काली कमरिया भी
हो उठेगी आरक्त ..
तुम सी .
मन की तकली पर
जवाब देंहटाएंयादों का सूत
अनवरत काता है ..
शुरूआत ने ही मन मोह लिया।
बेहतरीन कविता।
सादर
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‘जो मेरा मन कहे’ पर आपका स्वागत है
यशवंत जी बहुत शुक्रिया ..सराहना के लिए
हटाएंआपके ब्लॉग पर आना होता है मेरा
वाह.......................
जवाब देंहटाएंआँखों के आगे एक दृश्य सा नाच गया....
बहुत सुन्दर.
अनु
बहुत शुक्रिया अनु
हटाएंमन की तकली जब चलती है...तो कितना कुछ रिसता है...उससे पूछो जो इसकी पीड़ा को जीता है..बूँद बूँद !
जवाब देंहटाएंयादें बेचारी तो यूँ हीं बदनाम होतीं हैं !
रिसता है समस्त संज्ञान ....संवेदन...
रिसती है सम्पूर्ण संज्ञा .....आद्योपांत समग्र कुंठाएँ ...
अनंत परिताप !....
वो सब जो अनकहा रह गया ...
मौन के अंतरिक्ष में घूम रहा होता है जो ....अनवरत परिक्रमा में...
अशांत.....धूरिहीन.....अहर्निश !
और रहा पूनियों का रंग....तो जब शिराओं में तुम्हारा ही रंग दौड़ता है....जब आँखों से (बकौल ग़ालिब) तुम्हारा ही रंग टपकता है...जब उँगलियों के पोरों से वही एक रंग चूता है....तो जहाँ जहाँ भी खिलेगा ; तुम्हारा रंग ही तो खिलेगा !
हाँ ! प्रीत जुलाहे का हुनर तो ज़रूर सिखाती है ....
हम अपने में ही मगन ...अनुरत....तन्मय से
अनुदिन बुनते रहते हैं.....कितने ही स्वप्न ...ताने बाने ...
कितने संवाद.....संयोग सजीले....कितने संगम.....
धड़कन की लय-ताल पर....
श्वासों की सुमिरन में ...
मेरी काली कमरिया ने तो फिर ...तुम्हारे रंग में आरक्त हो ही जाना होगा ना ?...
क्योंकि ......
"लाली तेरे लाल की जित देखूँ तित लाल ....."
तूलिका....जाने क्यों जब-जब तुम्हारा लिखा पढ़तीं हूँ.......जब-जब उस पर कुछ लिखने का प्रयास करती हूँ ....आँखों के आगे का सब धुंधला जाता है...
ये आँखें भी ना..... त्चचचच !
दी! जानती हैं आप कि आपका लिखा हर एक शब्द संजीवनी की तरह कतरा कतरा जिलाता है मुझे ...आज से नहीं ...तब से ही जब से आपका साथ हुआ ...मैं तो कुछ नहीं थी ...भूल चुकी थी खुद को ...स्नेह की भाषा को ..प्रेम की अनुभूति को ...आपके दुलार से ..अधिकार से मैंने पाया है खुद को .......याद है आपने एक बार कहा था कि "तुम तो पूरी कविता हो"...मैं नहीं जानती आपने ऐसा क्यों कहा ..पर इतना जानती हूँ कि उस दिन मुझे अपने शब्दों पर भरोसा हुआ था ...अब जब भी कविता लिखने की कोशिश करती हूँ तो अदृश्य रूप से आपका कहा मेरे आस पास मौजूद रहता है ......रही बात मेरी कविताओं की ..वो तो सब आपके स्नेह को समर्पित हैं ...आप जब उसके भावों को अपने शब्दों में निरूपित करती हैं तो लगता है जैसे उसे मुझ से पहले आपने जिया है .....आपकी टिपण्णी पा मेरी कविता आह्लादित हो उठती है ..ठीक उसी तरह जैसे मेरा मन :) ....आप नहीं जानती आपको पढ़ कर मेरे गले में भी कुछ अटका हुआ ...आँखों में कुछ ठहरा हुआ लगता है ....आपको खूब सारा प्यार ♥♥♥♥♥
हटाएंतूलिका...एक बार फिर....कविता शुरू से जिस मूल बिम्ब को साथ लेकर चली आखिर तक वो बिम्ब खूबसूरती से अपने अन्य सहायक बिम्बों के साथ कायम रहा है.
जवाब देंहटाएंओए........तुमने अब तक तो ढेरों सूत कात लिया होगा...अब,एक काम कर दो..मुझे भी सिखा दो यह काम....मुझे कुछ ख्वाब बुनने हैं...ऐसे ख्वाब जो सच हो जाएँ.
निधि मेरे सपनों को तो तुम आकार देती हो ...और हुनर मुझसे सीखना चाहती हो ...तू बोल तो ..तेरा सूत भी कात दूंगी ...और ख्वाब भी बुन दूंगी .....अपनी जान के लिए जान भी हाज़िर
हटाएंवाह..खूबसूरत चित्रण..!!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ब्रिजेन्द्र
हटाएंआँखों के आगे एक दृश्य सा नाच गया....shandar blog hae or sarthakpost .mere blog par svagat hae.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया संगीता ...आपके ब्लॉग पर भी आ रही हूँ
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