
कि जिस अग्नि से
दग्ध होती हूँ
प्रतिपल......
उसकी कुछ आंच
तो ज़रूर पहुँचती होगी
तुम तक .
तो क्यों नहीं पिघलती
वो बर्फ....
जो तुमने ओढ़ रखी है.
सोचती हूँ ये भी
कि इस अग्नि में
और जलूँगी ....
तुम तक पहुँचने वाली आंच
कुछ तो बढ़ेगी
बर्फ कुछ तो पिघलेगी
मैं देखना चाहती हूँ
जमी हुई तुम्हारी
वो संवेदनाएं .....
जो सिर्फ मेरे लिए हैं ||
बहुत ही सटीक भाव..बहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ..इतना उम्दा लिखने के लिए !!
शुक्रगुज़ार तो मैं हूँ ...कि आपको मेरा लेखन पसंद आ रहा है
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