बड़ी मुश्किल से शांत करती हूँ
सतह के पानी को ....
ऊपर से देख कर अंदाजा नहीं लगा सकते
कितने उलझे हुए हरे-नीले शैवाल है ..
कितने भंवर ..कितने तूफान हैं भीतर
मेरी इस झील के किनारे
बहुत सी दरारें हैं
कीच सी जमी हैं यहाँ यादें..
पाँव धंस जाते हैं घुटनों तक.
एक हंस रहता है वहीं..
सुर्ख चोंच वाला
गाहे बगाहे सर्र से तैर कर
पार कर लेता है सतह का सीना
देर तक लकीर का निशान रहता है वहाँ
...........................
यूँ कंकड़ न मारा करो इस शांत पानी में
जहाँ से पत्थर डुबकी लगाता है न
वही से बनती हैं ..
गोलाइयों की कुछ फ्रिन्जेज़
जब ये किनारों तक पहुँच जाती हैं न
तो वहाँ जमी यादें फिर गीली हो जाती हैं
सूखने का वक्त ही नहीं देते इन्हें .
बहुत ही खुबसूरत और प्यारी रचना..... भावो का सुन्दर समायोजन......
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया मैम!
जवाब देंहटाएंसादर
"यूँ कंकड़ न मारा करो इस शांत पानी में
जवाब देंहटाएंजहाँ से पत्थर डुबकी लगाता है न
वही से बनती हैं ..
गोलाइयों की कुछ फ्रिन्जेज़
जब ये किनारों तक पहुँच जाती हैं न
तो वहाँ जमी यादें फिर गीली हो जाती हैं
सूखने का वक्त ही नहीं देते इन्हें .."
बेहद मार्मिक भाव.. सुंदर प्रस्तुति..
आभार !!
वाह ..बहुत ही अच्छा लिखा है ...
जवाब देंहटाएंजहाँ पानी होता है न तूलिका, वहाँ ये चीज़ें होती ही हैं.......लहरें, भंवर, शैवाल, किनारे की दीवारें और उनसे रिसती जलधार........
जवाब देंहटाएंऔर....एक हंस भी.......................................................................
महत्वपूर्ण वह कंकड़ होता है कि कब पड़ता है सतह पर............किनारे पर बैठा हुआ आदमी नहीं जान सकता कि एक छोटे से कंकड़ से पानी के भीतर कैसी हिलोरें पैदा हो जाती हैं......................................................................
निर्दय प्रतीक्षा की बढ़िया सदय अभिव्यक्ति है आपकी यह कविता......तू-like !!
मन के भाव कों नए बिम्ब के माध्यम से कहा है ...
जवाब देंहटाएंवैसे यादों कों सूखने देना क्या ठीक है ...