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शुक्रवार, 16 मार्च 2012

परहेज़

 








सोचा है ....
तुमसे नहीं मिलूँगी
स्मृतियों मे भी नही
स्वप्नो मे भी नही

समस्त चेतनाओं को
आदेश दूँगी....
कि पथिक आए
तो रोके रखना

अवचेतन मन के किवाड़ भी
बंद कर दूँगी ....
आत्मनियंत्रण की
सीमाएँ भी बढ़ा दूँगी

मगर क्या इतने परहेज़
काफ़ी होंगे ?
ये पाश क्या कभी
बाँध पाएँगे .....मेरे प्रेम को
जिसमे बँधी हूँ .....
....................मैं ||

4 टिप्‍पणियां:

  1. मगर क्या इतने परहेज़
    काफ़ी होंगे ?
    ये पाश क्या कभी
    बाँध पाएँगे .....मेरे प्रेम को
    जिसमे बँधी हूँ .....
    ....................मैं ||
    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .... प्रेम की दुविधा का सहज चित्रण .... कहाँ आसान है प्रेम पाश से निकालना

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  2. तूलिका.....अमा यार तुम कहाँ इन परहेज वगैरह के चक्करों में पड़ गयीं ....कुछ रोके से रुकता होता ..
    तो ,क्यूँ होते है ...
    हम यूँ आज तक जुड़े हुए
    औरों से बंधने के बाद................भी .
    तुम्हारी तरह तुम्हारी लेखनी में गज़ब की सहजता है .तूलिका,एक बात बताओ ...प्रेम पे बस चलता है क्या..जो उससे जुडी बाक़ी चीज़ों पे चलेगा .

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    उत्तर
    1. हाँ निधि ..कुछ बंधनों को तोडना अपने हाथ में नहीं होता ....वैसे होता तो जोड़ना भी नहीं है ....यहाँ तो परहेज़ से बीमारी बढ़ जाती है

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