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रविवार, 18 मार्च 2012

ऊसर धरती



देखी है कभी ...
वर्षों से सूखे का दंश झेलती 
पपडियाई...दरारों से भरी 
बंजर धरती पर 
वर्षा की बूँदें ...

सुनी है कभी
वो सनसनाहट की आवाज़...
भीतर  से निकलते ताप 
और जलवाष्प को 
छुआ है कभी ...

ऊसर न हो 
उर्वर बनी रहे 
ताप न्यून हो जाए 
पपड़ियाँ खत्म हों 
दरारें भर जाएँ
भीज जाए वो भीतर तक...
इसके लिए दरकार 
मूसलाधार की नहीं 
रिमझिम.. अनवरत..
बरसते  मेह की है.

ऐसे  ही 
तुम भी बरसो न 
नेह बन के.


6 टिप्‍पणियां:

  1. मन के कैनवस पर इसी बारिश की जरुरत है...

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  2. सूखी...ऊसर...ज़मीन पर रिम-झिम बरसात ....वो धरती का एक-एक बूँद का रसास्वादन ...अपने आप में ही कितना सुन्दर है ....सारा वातावरण ...इस मिलन से महक जाता है.
    थोड़ी देर के लिए मूसलाधार बारिश...से कहीं बेहतर है धीरे -धीरे ,लगातार..अनवरत बरसना.
    तुम्हारी जो भी इच्छाएं हैं...सब पूरी हों .आमीन !!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यहाँ धरती अम्बर मिलने हैं ...क्षितिज तो खूबसूरत होना ही है

      हटाएं

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