उसके पांवों के नीचे
सख्त रास्ता नहीं था
उसकी जगह ले चुकी थी
एक तीव्र प्रवाहमयी नदी ...
धारा के विपरीत तैरने
और शिखर तक पहुँचने की जिद में
बाजुओं ने पाल ली थीं मछलियाँ
ये उसके स्व का विस्तार था
उत्परिवर्तन था उसकी काया का ...
पांवों में बंधे चप्पुओं को
मालूम थी ये बात
कि कोई नाविक ..कोई बेड़ा
नहीं आएगा आस पास
जो हर सके स्पर्श मात्र से
थोड़ा जीवन संघर्ष, उसके हिस्से का ...
फेफड़े पवन चक्की से चलते
साँसों की रफ़्तार से जलाते रहे
देह का कोयला ...
शिखर विस्फारित नेत्रों से देख रहा था
उस अंगार को ....
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जवाब देंहटाएंबहुत गहन कविता
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया यशवंत जी
हटाएंऔर शिखर तक पहुँचने की जिद में
जवाब देंहटाएंबाजुओं ने पाल ली थीं मछलियाँ
ये उसके स्व का विस्तार था
उत्परिवर्तन था उसकी काया का ...
waah! khubsurat!!
Mere blog ; http://kpk-vichar.blogspot.in par bhi aiye aur apni rai den,aabhari hounga.
बहुत शुक्रिया कालीपद जी ...आपके ब्लॉग पर भी आती हूँ
हटाएंसच कहा ...
जवाब देंहटाएंआत्मविश्वास ही "सब कुछ" है
बहुत शुक्रिया भरत भाई
हटाएंबहुत ही प्रेरक रचना ......अद्भुत जिजीविषा ....!!!
जवाब देंहटाएंसरस जी ..जीवन एक अदम्य जिजीविषा ही तो है
हटाएंहर जीवन का संघर्ष उसका अपना है ..अदम्य जिजीविषा भी अपनी ...तीव्र प्रवाह है भावों का ..शिखर को विस्फारित नेत्रों से देखना ही था ..
जवाब देंहटाएंशुक्रिया वंदना जी
हटाएंपांवों में बंधे चप्पुओं को
जवाब देंहटाएंमालूम थी ये बात
कि कोई नाविक ..कोई बेड़ा
नहीं आएगा आस पास
जो हर सके स्पर्श मात्र से
थोड़ा जीवन संघर्ष, उसके हिस्से का ...
बहुत-बहुत, सुन्दर भाव ...
मेरी अनुभूतियों ने आपके ह्रदय को स्पर्श भी किया हो तो उसका आभार
हटाएंतूलिका...तुम्हारे लिखे की पहचान...बिम्बों की लड़ियाँ एक दूसरे में गुंथ जाती हैं ...एक से दूसरा बिम्ब विस्तार पाता है .
जवाब देंहटाएंकविता पढ़ते हुए ...एहसास हो जाता है कि मनुष्य को अपनी जिजीविषा किसी हाल में नहीं खोनी चाहिए .सकारात्मक कविता!उत्परिवर्तन के सिद्धांत को समझाती हुई.
पढ़ते हुए ...आँखों के आगे एक चित्र आ जाता है.....एक तैराक का
जिसके बाजुओं ने पाल ली थीं मछलियाँ लगातार मेहनत के कारण
पांवों में बंधे चप्पुओं को
मालूम थी ये बात
कि कोई नाविक ..कोई बेड़ा
नहीं आएगा आस पास.....
जो हर सके स्पर्श मात्र से
थोड़ा जीवन संघर्ष, उसके हिस्से का ...पर वो हार नहीं मानेंगे ...पैर चलेंगे ..जब तक़ मंज़िल तक नहीं पहुँचते
फेफड़े पवन चक्की से चलते.....हांफना हार का नहीं...जीत के पास होने को बता रहा है .
साँसों की रफ़्तार से जलाते रहे
देह का कोयला ...यह देह जल कर ही हीरा बनेगी....निस्संदेह .
ये तुम्हारा अपरिमित स्नेह है जो मेरा लिखा सब कुछ समझ भी लेती हो और तारीफ़ भी कर लेती हो ...हाँ ! ये सब कुछ सकारात्मक लिखा ....जिजीविषा लिखी ...संघर्ष से हुआ परिवर्तन लिखा ...
हटाएं....
तेरी एक एक बात अपनी बात को संबल देती हुई लगी
हांफना हार का नहीं...जीत के पास होने को बता रहा है ....सच ये बात बहुत अच्छी लगी ...
तूलिका...तुम्हारे लिखे की पहचान...बिम्बों की लड़ियाँ एक दूसरे में गुंथ जाती हैं ...एक से दूसरा बिम्ब विस्तार पाता है .
जवाब देंहटाएंकविता पढ़ते हुए ...एहसास हो जाता है कि मनुष्य को अपनी जिजीविषा किसी हाल में नहीं खोनी चाहिए .सकारात्मक कविता!उत्परिवर्तन के सिद्धांत को समझाती हुई.
पढ़ते हुए ...आँखों के आगे एक चित्र आ जाता है.....एक तैराक का
जिसके बाजुओं ने पाल ली थीं मछलियाँ लगातार मेहनत के कारण
पांवों में बंधे चप्पुओं को
मालूम थी ये बात
कि कोई नाविक ..कोई बेड़ा
नहीं आएगा आस पास.....
जो हर सके स्पर्श मात्र से
थोड़ा जीवन संघर्ष, उसके हिस्से का ...पर वो हार नहीं मानेंगे ...पैर चलेंगे ..जब तक़ मंज़िल तक नहीं पहुँचते
फेफड़े पवन चक्की से चलते.....हांफना हार का नहीं...जीत के पास होने को बता रहा है .
साँसों की रफ़्तार से जलाते रहे
देह का कोयला ...यह देह जल कर ही हीरा बनेगी....निस्संदेह .
दूसरी बार में .... :)
हटाएंखूब सा स्नेह
हाँ सासों की धौंकनी
जवाब देंहटाएंऔर देह को कोयला करना ही यदि मान के शिखर तक पंहुचने की आवश्यक शर्त है ..तो ये कीमत चुकाई जानी चाहिए..