ये सड़क नहीं
धरती के सीने पर
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.
दर्द की लकीरें हैं
जो ढूंढ रही है
दर्द का एक और सिरा.
दिन रात चलती हैं
पर न थकती हैं
न मंज़िल तक पहुँचती
है
कितने ही रहबर
...रहनुमा
रौंद कर सीना इसका
निकल जाते हैं
अपनी मंज़िल को
उन्हें पहुंचाती है
उनके मुक़ाम तक...
कुछ और हमसफ़र
साथ ले चल देती है
अनंत यात्रा को.
कितने ही शहरों-गाँवों
कस्बों-कूचों का
हाथ थाम
जोड़ देती है
कुछ टूटे सिरे,
कुछ भटकी राहें,
कुछ खोये रिश्ते
....
तुम्हारे शहर की
सरहद पर जाकर
कैसे बदल जाती है
यकायक ?
फ़ोर लेन और सिक्स
लेन के
चमचमाते रूप से
चौंधियाती
क्यूँ बदल लेती है
अपना स्वभाव ...
शायद तुम्हारे शहर
को ही
भरमा लेने की आदत है
!!
वाह....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..
अनु
बहुत सुन्दर भाव है आपकी रचना का ..........
जवाब देंहटाएंsundar bhav
जवाब देंहटाएंbadhai.
mere navimtam 2 rachnaye aapki pratksha me hai.padhare
सड़क तो वहीं रहती है ... हां मुसाफिर जरूर चलते हैं उसपे और जाते हैं अपने गंतव्य तक ... सड़क तो उनके मुहाने जा के भी स्थिर ही रहती है ..
जवाब देंहटाएंभावमय रचना है ...
तुम्हारा लिखा पढ़ने के बाद..खुद जो सड़क पर लिखा था...अच्छा नहीं लगा .
जवाब देंहटाएंमैंने लिखा इतना कुछ पर जब तुम्हारी कविता आँखों के आगे आयी तब लगा कि मैं यही कहना चाह रही थी और इसे न कह पाने के चक्कर में मैंने इतना कागज़ काला किया...
मेरा लिखा ....यहाँ इसलिए क्यूंकि ये था हमारा साझा प्रयास ..ए ही विषय को ध्यान में रख कर लिखने का ...मेरी ओर से तुम खूब से मार्जिन से जीती ....
सड़क : खत्म हो जाती हैं यकीनन वहाँ
तुम मेरा हाथ छोडोगे जहां ..
मेरे हमसफ़र !!
सड़क : सब पहुँच जाते हैं उससे होकर
कहीं न कहीं
कभी न कभी
वो रह जाती है ,बस
वहीं की वहीं .
सड़क : थक जाती है सारा दिन
लोगों के कोलाहल से
सन्नाटा पसरता है
चाहती है ये भी
कमर सीधी कर के
आराम करना .
सड़क : बाँट क्यूँ देते हो मुझे
डिवाइडर बना कर
एक मैं ...
दो हिस्से
एक ले जाने वाला कहीं
एक ले आने वाला वहीं
सड़क : पत्थर ,गिट्टी
कोलतार ,मिट्टी
रोड रोलर से दबा दिए
तब भी उभर उभर आती है
गिट्टियां ..
संग चली आती हैं
चप्पल में चिपक कर
तेरी याद सी ढीठ है
ये गिट्टियां भी .
सड़क : हादसों को रोज़ देखती हैं
खून और आंसू समेटती हैं
जब भीड़ तमाशबीन होती है
चाहती है...काश
मोबाइल जो वहाँ गिरा है
उसे उठा मरने वाले के
किसी दोस्त को फोन लगा दे.
सड़क : रेगिस्तान की
सारे समय
रेत से ढकी
अपने किनारों को ढूँढती सी
जो खो गए रेत में .
पर ,वो खुश है रेत में यूँ गुम होकर .
सड़क:मानचित्र में
कहाँ है वो सड़क
जो तुम्हें मुझ तक लाएंगी .
उसके बाद मानचित्र की सारी सडकें
गायब हो जाएँ ,बस .
सड़क: तुम इनसे ही गए हो दूर
मेरे लिए ये हाथ की
वो काली रेखा है
जो मेरी पत्री से
ज़मीन पे उतरी है .
ग़ज़ब की कविता ... कोई बार सोचता हूँ इतना अच्छा कैसे लिखा जाता है
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