स्त्रियाँ कब तय करती हैं
रचनाओं का अनंत विस्तार?
कब उतरती हैं ..
काव्य की अतल गहराई में?
और कब सिरजती हैं
साहित्य के दुर्लभ पृष्ठ ?
जबकि बंधे होते है
पाँव गृहस्थी के फंदों से,
हाथ जिम्मेदारियों से,
और मन ममत्व से.
मगर विचार ...
उन्हें कौन बाँध सका है
वो तो स्वतंत्र विचरते हैं
उमड़ते हैं ...सिरजते हैं.
हैरान हूँ ये जानकार कि स्त्रियाँ
चुनते हुए चावलों से कंकड़
चुन लाती हैं कुछ शब्द
खोलते हुए मटर की फलियाँ
खोल लेती हैं स्मृतियों की खिड़कियाँ
और विचार झरने लगते हैं
गोल दानों की तरह.
विचारों की आंच पर
तपा कर इन्हें ...
ज्यों ही तेल में लगाती हैं छौंक
लौट आती हैं वर्तमान में
मगर कड़छी चलाते
फिर चल पड़ता है वही कारवां .
जब वो बुहारतीं हैं
आँगन या चौबारा ...या फिर
झाडती हैं घर की धूल
तो यादों की धूल भी झड़ जाती है.
अलगनी से उतारे कपड़ों के साथ
उतार लेतीं हैं कुछ बिम्ब
जमा देतीं हैं करीने से पंक्तियों में
जैसे अलमारी में कपडे जमाये हों.
जोड़ते हुए राशन का हिसाब
सीख जाती हैं जोड़ना छंद की मात्राएँ
बनिए का हिसाब मिलाते-मिलाते
काफिये मिलाना भी सीख जाती हैं .
निबाहते हुए एक एक ज़िम्मेदारी
रचती रहतीं हैं पंक्ति दर पंक्ति
पृष्ठ दर पृष्ठ ...नए आयाम .
हाँ ! नहीं भूलतीं छिपाकर रखना
बिखरा हुआ वो सामान
जो बाद में काम आएगा
ठीक उसी तरह ..जैसे कोई
सृजनात्मक सोच बचा लेता है
किसी अगली रचना के लिए ||
रचनाओं का अनंत विस्तार?
कब उतरती हैं ..
काव्य की अतल गहराई में?
और कब सिरजती हैं
साहित्य के दुर्लभ पृष्ठ ?
जबकि बंधे होते है
पाँव गृहस्थी के फंदों से,
हाथ जिम्मेदारियों से,
और मन ममत्व से.
मगर विचार ...
उन्हें कौन बाँध सका है
वो तो स्वतंत्र विचरते हैं
उमड़ते हैं ...सिरजते हैं.
हैरान हूँ ये जानकार कि स्त्रियाँ
चुनते हुए चावलों से कंकड़
चुन लाती हैं कुछ शब्द
खोलते हुए मटर की फलियाँ
खोल लेती हैं स्मृतियों की खिड़कियाँ
और विचार झरने लगते हैं
गोल दानों की तरह.
विचारों की आंच पर
तपा कर इन्हें ...
ज्यों ही तेल में लगाती हैं छौंक
लौट आती हैं वर्तमान में
मगर कड़छी चलाते
फिर चल पड़ता है वही कारवां .
जब वो बुहारतीं हैं
आँगन या चौबारा ...या फिर
झाडती हैं घर की धूल
तो यादों की धूल भी झड़ जाती है.
अलगनी से उतारे कपड़ों के साथ
उतार लेतीं हैं कुछ बिम्ब
जमा देतीं हैं करीने से पंक्तियों में
जैसे अलमारी में कपडे जमाये हों.
जोड़ते हुए राशन का हिसाब
सीख जाती हैं जोड़ना छंद की मात्राएँ
बनिए का हिसाब मिलाते-मिलाते
काफिये मिलाना भी सीख जाती हैं .
निबाहते हुए एक एक ज़िम्मेदारी
रचती रहतीं हैं पंक्ति दर पंक्ति
पृष्ठ दर पृष्ठ ...नए आयाम .
हाँ ! नहीं भूलतीं छिपाकर रखना
बिखरा हुआ वो सामान
जो बाद में काम आएगा
ठीक उसी तरह ..जैसे कोई
सृजनात्मक सोच बचा लेता है
किसी अगली रचना के लिए ||
waah kya baat hai. khubsurat rachna ke liye badhai.
जवाब देंहटाएंअमित जी.. रचना पसंद आई ..शुक्रिया
हटाएंKhubroot...Rachna Hai...Badhai
जवाब देंहटाएंमंजुल जी.. रचना की खूबसूरती को सराहने का शुक्रिया
हटाएंVisit : www.mbtor.blogspot.com
जवाब देंहटाएंज़रूर
हटाएंतूलिका....बहुत खूब!!यह प्रश्न उन लोगों के मन में अवश्य ही उठता होगा...जिन्हें लिखने के लिए माहौल,शांति,आराम की ज़रूरत होती है .तुमने इस कविता में वही सच लिख डाला है कि स्त्री किस आपा धापी...भाग-दौड .....चूल्हा-चौका ....बाक़ी ढेरों काम को अंजाम देते हुए भी लिख लेती है.मुझे तो लगता है ये मल्टी टास्किंग ...हम औरतों से अच्छी कोई कर ही नहीं सकता.फोन को कंधे पे लगाए....दोनों हाथ से रोटी बेलते हुए ....सीरियल पे आँख लगाए खुद को भी शायद कभी पाया हो.
जवाब देंहटाएंछिपा कर रखना ही तो सुघडता का प्रतीक बन जाता है....सब चीज़ करीने से...कायदे से लगाना ही तो उसके गुण हैं जो इतनी व्यस्तताओं में भी उसे समय ढूंढ लेने देने देते है ...सृजन करने में सहायक होते हैं
.हैरान हूँ ये जानकार कि स्त्रियाँ
चुनते हुए चावलों से कंकड़
चुन लाती हैं कुछ शब्द
खोलते हुए मटर की फलियाँ
खोल लेती हैं स्मृतियों की खिड़कियाँ
और विचार झरने लगते हैं
गोल दानों की तरह.
व्यक्तिगत तौर पे मुझे सबसे अच्छा यह लगा.
हाँ निधि ! यही है मल्टी टास्किंग ...टाइम मैनेजमेंट .......सच कहूं तो मैं ऐसे ही लिखती हूँ ....दौड़ती भागती सी ...कभी ड्राइव करते कुछ लाइंस बन जाती हैं ...गाड़ी रुकते ही उन्हें नोट कर लेती हूँ ..कभी किचेन में कुछ करते करते आ कर डायरी में कुछ लिख जाती हूँ ....बाद में फिर याद आये न आये .....
हटाएंहैरान हूँ ये जानकार कि स्त्रियाँ
चुनते हुए चावलों से कंकड़
चुन लाती हैं कुछ शब्द
खोलते हुए मटर की फलियाँ
खोल लेती हैं स्मृतियों की खिड़कियाँ
और विचार झरने लगते हैं
गोल दानों की तरह.
व्यक्तिगत तौर पे तुम्हे सबसे अच्छा यही लगा.न ...एक बात बताऊँ ....इन्ही लाइंस से इस कविता की शुरुआत हुई थी ...बाकी आगे पीछे तो बाद में जुड़ा..
एक और बात तुम्हारी टिप्पणियों का इंतज़ार रहता है .........मुझे संबल भी मिलता है और प्रेरणा भी
दरअसल स्त्रियाँ ही तय करती हैं बहुत कुछ,
जवाब देंहटाएंमगर वो सोचती ही नहीं कि उन्हें तय करना चाहिए कुछ....
अगर स्त्री सचमुच अगर तय कर ले कि ये दुनिया बदलनी है,
तो सचमुच बदला जा सकता है...सबका-सब...सब कुछ
मगर स्त्री बरसों से इस धोखे में है,
कि वो कमजोर है बहुत
और कुछ भी बदल नहीं सकती वो
स्त्री अपनी ताकत का अंदाजा
देवियों के अनेक रूपों को देखकर भी,
जिनकी पूजा किया करती हैं वो रोज ब रोज,
कभी कर नहीं पाती खुद की गरिमा का अहसास...
और रोज-ब-रोज सजती-संवरती है पुरुष के लिए
और इस तरह बजाय अपनी ताकत के
वो देती हैं अपनी मादकता का अहसास...
अगर संसार की सारी स्त्रियाँ या कुछ ही स्त्रियाँ
सिर्फ एक क्षण को भी यह सोच लें
कि वो रसीली-छबीली या सेक्सी ना होकर
एक अहसास भी हैं मानवता के बदलाव का
कोमलता के साथ-साथ संवेदना की गहराई का...
तो दुनिया बदल सकती है एकदम से
पता है कितने समय में...??
बस एक पल में.....!!
राजीव जी ...बहुत सुन्दर लिखा है आपने ..शत प्रतिशत वो सच जो आपको दिखता है ....मगर परदे के पीछे का एक सच ये भी है कि...स्त्री ..अपना आप कभी हो ही नहीं पाती ...वो माँ होती है ...बहन होती है ...बेटी होती है ...बीवी होती है ...प्रेयसी होती है ....बहू ,सास,गृहस्थी की धुरी ,प्रथम पाठशाला,धरती की तरह क्षमावान आदि इत्यादि भी होती है ...इन सब में वो अपना किरदार भूल जाती है ...खुद को दबा कर जीना किसे कहते हैं ये स्त्री से बेहतर कोई नहीं जानता.... गरिमा के एहसास से ही वो चुप रहती है ...यदि वो मुखर हो जाये तो जिसे हम तथाकथित भारतीय संस्कृति कहकर गौरवान्वित होते हैं उसकी धज्जियाँ उड़ जाएँ ..
हटाएंपिछली टिप्पणी मे दिनांक की की गलत सूचना के लिए क्षमा करें---
जवाब देंहटाएंकल 30/10/2012 को आपकी यह पोस्ट (विभा रानी श्रीवास्तव जी की प्रस्तुति में) http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!
सूचना और चयन के लिए शुक्रिया यशवंत जी
हटाएंहर पंक्ति सच को कहती हुई ..... बहुत सुंदर बिम्ब प्रयोग किए हैं .... अक्सर स्त्रियाँ कविताओं का सृजन ऐसे ही करती हैं ....
जवाब देंहटाएंसंगीता जी आभार
हटाएंस्त्रीत्व पर कोमल भाव लिए रचना..
जवाब देंहटाएं:-)